Sunday, August 8, 2010

युग तुलसी महाराजश्री के आठवें निर्वाण दिवस पर विशेष

१ नवम्बर १९२४ में मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में श्रीरामकिंकर जी का जन्म हुआ और ९ अगस्त २००२ को उन्होंने अपना पञ्च भौतिक देह का त्याग कर दिया। इस ७८ वर्ष के अन्तराल में उन्होंने श्रीरामचरितमानस पर ५९ वर्ष तक लगातार प्रवचन किये ।

श्रीरामकिंकर जी आचार्य कोटि के संत थे। सारा विश्व (जहाँ- जहाँ श्रीरामकिंकर जी का नाम गया) जानता है की रामायण की मीमांसा जिस रूप में उन्होंने की वह अदितीय थी । परन्तु स्वयं श्रीरामकिंकर जी ने अपने ग्रंथो में, प्रवचनों में या बातचीत में कभी स्वीकार नहीं किया की उन्होंने कोई मौलिक कार्य किया वे हमेशा यही कहते रहे की मौलिक कोई वस्तु होती ही नही है... भगवान् जिससे जो सेवा लेना चाहते हैं वह ले लेते हैं वस्तु या ज्ञान जो पहले से होता है व्यक्ति केवल उसका सीमित प्रकाशक दिखाई देता है । दिखाई वही वस्तु देती है जो होती है जो नहीं थी वह नहीं दिखाई जा सकती है । वह कहते हैं की रामायण में वे सूत्र पहले से थे, लोगों को लगता है की मैंने दिखाए या बोले, पर सत्य नहीं है । उनका वह वाक्य उनकी और इश्वर की व्यापक्ता को सिद्ध करता है ।
रामायण की परम्परा में चार वक्ता हैं ।
याग्यवलक्य, भगवान शंकर , काक्भुशुन्दी जी और तुलसीदास जी पर आश्चर्य की बात है की इन चारों लोगों से पूछा गया तो चारों वक्ताओं में कोई यह स्वीकार नहीं करता है की मैं रामायण का आदि वक्ता हूँ, वे सब यही कहते हैं की मैं सुनी सुने कथा कह रहा हूँ ।

याग्यवलक्य जी से पूछा गया की आप जो कथा कह रहे हैं वह कहाँ से बोल रहे हैं तो वह बोले :-

एसेई संशय कीन्ह भवानी । महादेव तव कहेउ बखानी ॥
कहऊँ सो मति अनुसार यह उमा संभु संवाद ॥

याग्यवलक्य जी बोले भारद्वाज जी मैं अपनी मति के अनुसार कथा सुनाऊंगा पर यह वही कथा है जो शंकरजी ने पार्वतीजी को सुनाई ।

भगवान शंकरजी से पूछा गया की आप जो पार्वती जी को कथा सुना रहे हैं क्या यह आपकी रचना है ? तब उन्होंने भी यह कह दिया की नहीं यह मेरी रचना नहीं है यह वही कथा है जो काक्भुशुन्दी ने गरुड़ जी को सुनाई वह कथा है । वह कहते हैं :-

सुनु शुभ कथा भवानी रामचरित मानस विमल ।
कहा भुशुण्डी बखान सुना विहग नायक गरुड़ ॥


....to be continued

Wednesday, July 21, 2010

गुरु पूर्णिमा सन्देश

गुरु का शिष्य को उपदेश !!!

एक शिष्य ने परमपूज्यपाद श्री राम किंकर जी से कहा... महाराज! मुझे यह भजन करना झंझट सा लगता है, मैं छोड़ना चाहता हूँ इसे!!! उदार और सहज कृपालु महाराजश्री उस शिष्य की ओर करुनामय होकर बोले... छोड़ दो भजन! मैं तुमसे सहमत हूँ | स्वाभाविक है की झंझट न तो करना चाहिए और न ही उसमे पड़ना चाहिए |
पर मेरा एक सुझाव है जिसे ध्यान रखना की फिर जीवन में कोई और झंझट भी मत पालना क्योंकि तुम झंझट से बचने की इच्छा रखते हो | कहीं भजन छोड़ कर सारी झंझटों में पड़ गए तो जीवन में भजन छूट जायेगा और झंझट में फँस जाओगे | और यदि भजन नहीं छूटा तो झंझट भी भजन हो जाएगा | तो अधिक अच्छा यह है की इतनी झंझटें जब हैं ही तो भजन की झंझट भी होती रहे |

भाई जी